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तहरी – द सर्जिकल स्‍ट्राइक

यह वाक्‍या लगभग सन् 2000 के आसपास का है। उस समय हमको रोटी से ज्‍यादा चावल खाना पसंद था। खासकर तहरी (मसालेदार खिचड़ी) बहुत पसंद थी। परंतु रोज-रोज घर पर माताजी से तहरी के लिए कहना खतरे से खाली नहीं था क्‍योंकि घर पर हमको छोड़कर बाकी सभी लोगों को रोटी ही पसंद थी। घर पर चावल जब भी बनता था तो दिन में ही बनता था क्‍योंकि हमारे यहां रात में कोई चावल नहीं खाता था। जब कभी दिन में चावल बच जाता था तो उसे शाम को हमारे लिए फ्राई किया जाता…

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तहरी – द सर्जिकल स्‍ट्राइक
[bs-quote quote="मेरा नाम अरविन्‍द यादव है और मैं आयकर विभाग, नागपुर में आयकर निरिक्षक के पद पर कार्यरत हूं। हम अपने मां-बाप के इकलौते पुत्र है और हमारी तीन बहनें है, हम घर में सबसे छोटे है। पिताजी लखनऊ के एक प्रसिद्ध दैनिक अखबार में कार्यरत थे, जिस वजह से हमारे जीवन की शुरुआत लखनऊ में हुई और लखनऊ की ही गलियों में हम बड़े हुए। परिवार में सबसे छोटे होने के कारण हमारी परवरिश बड़े लाड-प्‍यार से हुई। बचपन से ही हमारा मन पढ़ाई में नहीं लगा, जिसके कारण हमारी पढ़ाई-लिखाई अच्‍छी नहीं रही। फिल्‍में देखने का शौक हमें बचपन से था जिस वजह से पिताजी हमें ज्‍यादा पसंद नहीं करते थे क्‍योंकि हमारे पिताजी बहुत कर्मठ‍ और अनुशासित थे उन्‍हें आलसी और लापरवाह लोग बिल्‍कुल पसंद नहीं थे और वो हमेशा पढ़े-लिखे व अनुशासित लोगों को ही पसंद करते थे। पिताजी की मुझसे काफी अपेक्षाएं थी, परंतु हम अपने पिताजी की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे। जीवन में आगे बढ़ने की कोई उम्‍मीद नहीं दिखाई दे रही थी, परंतु मां-बाप का आशीर्वाद और दोस्‍तों की मोहब्‍बत रंग लाई और 2011 में हमारा चयन आयकर विभाग, नागपुर में हो गया। हमारा विवाह जिला उन्‍नाव की ‘पारुल बेगम’ से हुआ और विवाह के एक साल बाद हमारे घर पर एक नन्‍ही परी का आगमन हुआ जिसका नाम हमने 'बरखा सिंह' रखा। मैंने अपनी जिन्‍दगी में कोई महान कार्य नहीं किया जिस वजह से मुझे कोई प्रसिद्धि नहीं मिली।" style="style-13" align="left" author_name="अरविन्‍द यादव" author_job="आयकर निरीक्षक, आयकर विभाग, नागपुर" author_avatar="https://aaharsamhita.com/wp-content/uploads/2019/01/arvind-avatar-120-1.jpg"][/bs-quote] यह वाक्‍या लगभग सन् 2000 के आसपास का है। उस समय हमको रोटी से ज्‍यादा चावल खाना पसंद था। खासकर तहरी (मसालेदार खिचड़ी) बहुत पसंद थी। परंतु रोज-रोज घर पर माताजी से तहरी के लिए कहना खतरे से खाली नहीं था क्‍योंकि घर पर हमको छोड़कर बाकी सभी लोगों को रोटी ही पसंद थी। घर पर चावल जब भी बनता था तो दिन में ही बनता था क्‍योंकि हमारे यहां रात में कोई चावल नहीं खाता था। जब कभी दिन में चावल बच जाता था तो उसे शाम को हमारे लिए फ्राई किया जाता था और फ्राइड चावल का तो मजा ही अलग था। एक दिन की बात है। उस समय हम शाम को ट्यूशन जाते थे। दोपहर का चावल थोड़ा बचा था। हमने अपनी बहन से कहा कि चावल फ्राई कर दो तो हम खाकर ट्यूशन चले जाएं, परंतु हमारी बहन हम पर बहुत गुस्‍सा रही थी। काफी लड़ाई-झगड़े के बाद माताजी के कहने पर बहन चावल फ्राई करने को राजी हुई। हम बहुत खुश हुए ऐसा लगा जैसे कोई बहुत बड़ा मुकाम हासिल कर लिया हो। परंतु हमें ये नहीं पता था कि हमारी बहन आगे कौन सी चाल चलने वाली है। उसने बराबर चावल फ्राई किए और बोली चावल कड़ाही से अपने आप निकाल लो। हम जैसे ही किचन के अंदर गए उसने बाहर से किचन के दरवाजे की कुंडी बंद कर दी। काफी मिन्‍नतों के बाद भी हमारी बहन ने कुंडी नहीं खोली और धीरे-धीरे ट्यूशन का समय समाप्‍त हो गया था। दूसरे दिन जब पिताजी को पता चला कि हम ट्यूशन नहीं गए तो उसके बाद हमारी जो धुनाई हुई वो हम शब्‍दों में बयां नहीं कर सकते। पिताजी को वैसे भी चावल कम पसंद था। इस घटना ने तो आग में घी डालने का काम किया। उसके बाद घर पर कुछ दिनों के लिए चावल बनना बिल्‍कुल ही बंद हो गया। जब पिताजी घर पर नहीं होते थे तो हमारी माताजी चोरी से कभी-कभी हमारे लिए चावल बना देती थीं। अंतत: हमारी माताजी व बहनें हमारे लिए तहरी बना-बनाकर ऊब चुकी थी। कई बार सोचा की तहरी खाना छोड़ दूं परंतु तहरी ने हमारे मन में बहुत मजबूत जगह बना ली थी। अब वो हमें आसानी से छोड़कर जाने वाली नहीं थी। और घर वाले तहरी को अपने घर में जगह दे नहीं रहे थे। काफी कश्‍मकश के बाद कोई ठोस रास्‍ता नहीं निकल रहा था जिससे हमारी तहरी का हमारे घर में कोई स्‍थायी जगह मिल पाए। कई दिन बीत गए घर में तहरी नहीं बनी थी और हमको तहरी खाने का मन बहुत कर रहा था। फिर हमने तहरी खुद बनाने का फैसला किया परंतु बनायें कब! सबके रहते हुए तहरी बनाना संभव नहीं था। क्‍योंकि माताजी हमको किचन में जाने नहीं देती थीं। इसलिए हमने सोचा कि जब सब लोग सो जाएंगे तब तहरी बनाएंगे। उस समय शाम से लाइट बहुत धीमी हो जाती थी और मच्‍छर बहुत काटते थे। सभी लोगों के सोने का समय लाइट तेज होने के बाद रात 12 बजे के आसपास होता था। हमारे पिताजी अपने ऑफि‍स से देर रात ढाई (2:30) बजे के आसपास घर आते और सुबह तीन बजे के बाद ही सोते थे। सुबह माताजी व बहनें पाँच बजे के आसपास उठ जाती थीं। इसलिए जो भी करना था वो सुबह 3:30 से 4:30 बजे के बीच में ही करना था। ये योजना किसी सर्जिकल स्‍ट्राइक से कम नहीं थी। परंतु सबसे मुश्किल काम था तहरी बनाने के बाद किचन से सुरक्षित वापस आना। इस योजना को बनाने में हमें कई दिन लग गए और आखिरकार वो दिन आया जिस दिन हमें तहरी खाने के लिए सर्जिकल स्‍ट्राइक करनी थी। हमने इसके लिए सुबह चार बजे का समय निर्धारित किया और सफलतापूर्वक अपनी पहली सर्जिकल स्‍ट्राइक को अंजाम दिया। हम सुबह चार बजे उठे, फटाफट तहरी बनाकर, खाकर, सारे बर्तन मांजकर सुरक्षित अपने बिस्‍तर पर 4:30 बजे वापस आ गए। लेकिन लालच बुरी बला है। कुछ ही दिनों बाद हमारा मन फिर से तहरी खाने को करने लगा। परंतु इस बार हमारी सर्जिकल स्‍ट्राइक सफल नहीं रही। हम पकड़े गए। उसके बाद जो हमारी खिचड़ी बनी वो देखने लायक थी। जब हम छोटे थे तब कभी-कभी सोचते थे कि जब बड़े हो जाएंगे और कमाने लगेंगे तो बिना किसी डर के रोज तहरी खाएंगे। परंतु जब बड़े हुए तब पता चला कि जिम्‍मेदारी क्‍या होती है। बड़े होते ही जिम्‍मेदारियों ने हमें अपने जाल में ऐसा जकड़ा कि तहरी कब हमारे कलेजे से दूर हो गई पता ही नहीं चला। अब तो पत्‍नी जो बना देती है उसे चुपचाप बिना किसी सवाल-जवाब के अच्‍छे बच्‍चे की तरह खा लेते हैं। हमारे लिए सबसे दुखद बात यह है कि हमारी पत्‍नी को भी चावल कम पसंद है। बस इतनी ही कहानी थी मेरी, मेरी मां, पापा, एक पत्‍नी, लखनऊ की गलियां और मेरा मन जिसमें अभी भी तहरी के लिए प्‍यार बाकी था। हम तहरी बना सकते थे पर किसके लिए, हम तहरी बनवा सकते थे पर किसके लिए। मेरी प्‍यारी तहरी, मां-बाप, बहनें, लखनऊ की गलियां सब धीरे-धीरे मुझसे दूर हो रहे थे। मेरे सीने की आग अभी भी मुझसे तहरी बनवा सकती थी। पर सोचता हूं कि अब कौन उठे, कौन आलू छीले, कौन मटर छीले, कौन चावल बिने, कौन फिर से मेहनत करे, अब मन नहीं करता ये सब करने को। अब तो चुपचाप खाना खाकर सोने में ही भलाई है। पर उठेंगे किसी दिन वैसी ही सर्जिकल स्‍ट्राइक करने को, तहरी के इश्‍क में फिर से पागल हो जाने को।
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